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चक्र- स – आगमन का चौथा इतवार

मीकाह 5:1-5; इब्रानियों 10:5-10; लुकस 1:39-45

ब्रदर नमित तिग्गा (भोपाल महाधर्मप्रान्त)


साधारणतः हमारी मानवीय सोच इस प्रकार की होती है कि जब भी कोई हम से मदद मांगना चाहते हैं, तब हमारा ध्यान कैलेण्डर की ओर जाता है और हम यह बताना, दिखाना या प्रकट करना चाहते हैं कि हम कई सारे कामों में बहुत व्यस्त हैं और उनकी मदद करने में असमर्थ हैं।

लेकिन आज के सुसमाचार में हम पाते हैं कि जैसे ही मरियम स्वर्गदूत से यह बात सुनती है कि बुढ़ापे में आपकी कुटुम्बिनी एलीजबेथ को भी पुत्र होने वाला है; अब उसका, जो बांझ कहलाती थी, छठा महीना हो रहा है (लुकस 1:36 ), वह दूत के इन कथनों से आनंद विभोर होकर शीघ्रता से एलीजबेथ से मिलने के लिए चल पड़ती है। उनका एक ही लक्ष्य था - मदद करना। इसलिए शीध्रता से चल पड़ती है।

बिना किसी यातायात साधनों की सुविधा के, पहाड़ - पर्वत, घाट और घाटियां, नदी - तालाब और उबड़ - खाबड़ राहों से होकर पैदल यात्रा करके एलीजबेथ के घर शीघ्रता से पहुंचना यही दर्शाता है कि वो कितने प्रेम, समझदारी, सहयोग, विनम्रता एवं सहानुभूति की भावनाओं से कूट - कूट के भरी हुई थी। मरियम और एलीजबेथ, दोनों एक -दूसरे से मिलते हैं और दोनों ही स्वर्गीय कृपा से पूर्ण हैं, अर्थात मरियम के गर्भ में बालक येसु एवं एलीजबेथ के गर्भ में बालक योहन बपतिस्ता।

मरियम और एलीजबेथ की भेंट एक विशेष प्रकार की भेंट थी, क्योंकि वे जब मिलीं, दोनों ही ने एक दूसरे की प्रशंसा की। दोनों आपस में गले मिलीं और एक दूसरे के उपर अपनीं हाथ रखीं। मरियम के अभिवादन से एलीजबेथ न केवल आध्यात्मिक रुप से प्रसन्न हुई, बल्कि उसका पूर्ण शरीर खुशी से आनन्द विभोर हो उठा, फलस्वरुप बच्चा उसके गर्भ में खुशी के मारे उछल पड़ा। इस खुशी के महौल में मरियम से भी रहा नहीं गया, वह भी खुशी से पूर्ण हो कर गा उठी - मेरी आत्मा प्रभु का गुणगान करती है, मेरा मन अपने मुक्तिदाता ईश्वर में आनन्द मनाता है, क्योंकि उसने अपने दीन दासी पर कृपा - दृष्टि की है। (लुकस 1: 46- 55 )

इस प्रकार हम देखते हैं कि मरियम और एलीजबेथ की भेंट एक पवित्र एवं आनन्द मय भेंट थी। इन दोनों ने स्वयं की बड़ाई नहीं की, बल्कि ईश्वर की बड़ाई की।

एलीजबेथ ने मरियम को ‘‘प्रभु की माँ” कह कर पुकारा। यहां येसु की पहचान मां के गर्भ में से ही प्रभु के रुप में हुई और बालक योहन एलीजबेथ के गर्भ में उछल पड़ा, अर्थात मां और बालक दोनों ने ही मरियम के गर्भ में येसु की उपस्थिति को पहचाना और स्वीकार भी किया। इस प्रकार इस भेंट में न केवल मरियम और एलीजबेथ एक दूसरे से मिलीं, परन्तु इनके द्वारा येसु और योहन की भी मुलाकात हुई।

एलीजबेथ कहती है, ‘‘मुझे यह सौभाग्य कैसे प्राप्त हुआ कि मेरे प्रभु की माता मेरे पास आयी ‘‘? (लुकस 1: 43) वह अनजाने में नहीं कहती है बल्कि पवित्र आत्मा की प्रेरणा से प्रेरित होकर यह बात प्रकट करती है क्योंकि वह येसु के सान्निध्य में है और उसे ईश्वर की कृपा प्राप्त है।

‘‘मुझे यह सौभाग्य कैसे प्राप्त हुआ ‘‘- एलीजबेथ का यह कथन उसके पुत्र योहन के मनोभाव से बखूबी मेल खाता है या मिलता - जुलता है। योहन ने भी बपतिस्मा पाने के लिए अपने पास आये येसु से अपनी अयोग्यता को जाहिर करते हुए यही कहा – “मुझे तो आप से बपतिस्मा लेने की जरूरत है और आप मेरे पास आते हैं” (मत्ती 3: 14- 15)। इससे यही स्पष्ट होता है कि एलीजबेथ और योहन हमारे समक्ष विनम्रता एवं सहानुभुति का उदाहरण प्रस्तुत करते हैं।

तो आज हम इन चारों व्यक्तित्वों के माध्यम से कई सारी मानवीय गुणों को सीख सकते हैं। उनमें से सबसे महत्वपूर्ण गुण है विनम्रता एवं सहानुभूमि का गुण। यह गुण इंसान को महान बनाता है। विनम्रता की भावना एक - दूसरे को समझने या जरूरत में एक दूसरे की मदद करने के लिए आग्रह करता है। विनम्रता से पूर्ण व्यक्ति चीजों को सीखने और आगे बढ़ने की योग्यता रखता है।

तो आईये हम इस आगमन काल के अंतिम समय में अपने जीवन के बारे में अवलोकन कर देखें कि एक अच्छा इंसान बनने के लिए हम कौन - कौन से गुणों को बढ़ावा देते हैं ? या हमें कौन - कौन से गुणों को बढ़ावा देने की आवष्यकता है ? आज हम करबद्ध होकर प्रार्थना करें कि ईश्वर हमें विनम्रता एवं सहानुभूति का गुण प्रदान करें। आमेन ।