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चक्र- ब – वर्ष का इकतीसवाँ रविवार

विधि-विवरण 6: 2-6; इब्रानियों 7:23-28; मारकुस 12:28-34

ब्रदर सायमन मार्को (इन्दौर धर्मप्रान्त)


आज के तीनों पाठ हमें ईश्वर और पड़ोसी को अपने समान प्यार करने को आह्वान करते हैं।

आज के सुसमाचार में एक शास्त्री सबसे बड़ी तथा महत्वपूर्ण आज्ञा के विषय में येसु का विचार पूछता है। प्रभु येसु उसको उत्तर देते हैं, “अपने प्रभु-ईश्वर को अपने सारे हृदय, अपनी आत्मा, अपनी सारी बुध्दि और सारी शक्ति से प्यार करो।” (मारकुस 12:30) इसका मतलब यह है कि हम ईश्वर को, उसकी धार्मिकता को प्रथम स्थान दे। ईश्वर में पूर्ण विश्वास करें और अपना सर्वस्व समर्पित करें।

आज की आधुनिक दुनिया में हम लोग अधिकत्तर अपने कामों में व्यस्त रहते हैं। हमारे पास समय रहते हुए भी ईश्वर के चरणों में बैठने के लिए समय नहीं दे पाते हैं। कहा जाता है, पुराने जमाने में लोगों के पास घड़ियाँ नहीं थी, लेकिन सबके पास समय था। आज कल सबके हाथ में घड़ी है लेकिन किसी के पास समय नहीं है। यह वाक्य कुछ हद तक सत्य है। हमारे पास सब कुछ के लिए समय है लेकिन ईश्वर के लिए नहीं है। जब हमारे जीवन में सुख और समृध्दि है तो हम ईश्वर को भूल जाते हैं और जब हम मुसीबत, दुःख, संकट या किसी परेशानी में होते हैं, तब हम ईश्वर के पास आते हैं। तो हमें आशिष कैसे मिलेगी? हम ईश्वर के साथ अपना सम्बध कैसे बना पायेंगे?

यदि हम किसी को बहुत प्यार करते हैं तो हम हमेशा उसके साथ रहना, उसके साथ बातें करना चाहते हैं। हम प्रभु येसु के जीवन में देखते हैं। वह हमेशा प्रातःकाल पिता ईश्वर के साथ अपना समय व्यतित करते थे क्योंकि वह पिता ईश्वर से बहुत प्यार करते थे। आज अपने आपको परख कर देखें कि हम ईश्वर को कितना प्यार करते हैं, हम ईश्वर के लिए कितना समय देते हैं, हम किसको प्रथम स्थान देते हैं?

हम बाईबिल में पढ़ते हैं कि जिन्होंने ईश्वर पर श्रध्दा रखा, उसमें पूर्ण विश्वास किया ईश्वर ने उन्हें महान बनाया, और उन्हें प्रचुर मात्रा में आशिष प्रदान किया। हमें ज्ञात है कि ईश्वर ने इब्राहीम को सभी राष्ट्रों का पिता बनाया । क्यों? क्योंकि इब्राहीम ने ईश्वर को अपने जीवन में प्रमुख स्थान दिया, ईश्वर में पूर्ण विश्वास किया और उसकी आज्ञाओं का पालन किया।

हम अय्युब ग्रन्थ में अय्युब के बारे में भी पढ़ते हैं कि अय्युब ईश्वर पर श्रध्दा रखता था। उसका विश्वास ईश्वर पर अडिग था। एक दिन शैतान उसकी परीक्षा लेता है। उसका जीवन कष्ट, दुःख-दर्द और अपमान से घिर गया। उसने अपनी धन-सम्पति को खो दिया, यहाँ तक कि उसकी पत्नी के सिवा अपने परिवार के सदस्यों को भी खो दिया लेकिन घोर विपत्ति में भी उसकी ईश-निष्ठा दृढ़ रही। वह यही कहता है, “प्रभु ने दिया था, प्रभु ने ले लिया धन्य है प्रभु का नाम।” (अय्युब 1:21) जब उसकी पत्नी ईश्वर को कोसने को कहती है तो वह कहता है, “हम ईश्वर से सुख स्वीकार करते है, तो दुःख क्यों न स्वीकार करें?” (अय्युब 2:10)

प्यारे भाइयो एवं बहनो, हमारे जीवन में भी शैतान विभिन्न प्रकार से परीक्षा लेता है, जैसे कि दुःख-दर्द के द्वारा, अनके परेशानियों या र्दुघटनाओं के द्वारा। जब हम इन परिस्थितियों से गुजरते हैं तो हम ईश्वर से शिकायत करने लगते हैं कि ये दुःख-दर्द, परेशानियाँ हमारे जीवन में क्यों आते हैं? हम ईश्वर को कोसने लगते हैं। ऐसा क्यों? यह प्रश्न अपने आप से पूछने की जरूरत है।

जब हम इन परिस्थितियों में रहते हैं, उस समय हमारे पास दो विकल्प रहते हैं जीवन या मृत्यु। हम विधि-विवरण के अध्याय 30 वाक्य 15 हम पढ़ते हैं, “मैं तुम्हारे सामने जीवन और मृत्यु, भलाई और बुराई रख रहा हूँ।” प्यारे भाईयों एवं बहनों, हम किसको चुनते हैं? हम अधिकत्तर मृत्यु को चुनते हैं। मृत्यु को चुनना मतलब अन्धकारमय जीवन में प्रवेश करना। जीवन को चुनना मतलब अनन्त जीवन में प्रवेश करना। आज प्रभु येसु हममें उस अनन्त जीवन के मार्ग को, जीवन्त ईश्वर को चुनने को कहते हैं।

प्यारे मित्रों! ख्रीस्तीय होने के नाते हमें सताया और हम पर अत्याचार किया जाता है। लेकिन हमें गौरव करना चाहिए कि हमें अपने विश्वास के कारण सताया जा रहा है। इन विकट परिस्थिति में हमारा विश्वास ईश्वर में कितना अडिग है उसको प्रदर्शित करता है। हममें ज्ञात हैं मणिपुर के ख्रीस्तीय विश्वासियों के बारे में, वे अपने विश्वास के कारण अपना जीवन खो दिये, बहुत लोग बेघर हो गये, बहुतों को प्रताड़ित किये लेकिन वे अपने विश्वास से विचलित नहीं हुए बल्कि वे अपने विश्वास में और अडिग बने रहें। यदि हम अपने विश्वास में दृढ़ है तो हममें ईश्वर के प्रेम से कोई अलग नहीं कर सकता।

आइये, प्यारे भाइयो एवं बहनो, हम प्रभु येसु से आशिष एवं कृपा माँगें ताकि हम सदैव अपने जीवन में ईश्वर को प्रथम स्थान दें और दिन प्रतिदिन अपने विश्वास में दृढ़ बनते जायें।