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चक्र- ब – सामान्य काल का पच्चीसवाँ रविवार

प्रज्ञा ग्रंथ 2:12,17-20; याकूब 3:16-4:3; मारकुस 9:30-37

ब्रदर आशिष मेड़ा (झाबुआ धर्मप्रान्त)


"जो पहला होना चाहता है, वह सबसे पिछला तथा सबका सेवक बने" (मारकुस 9:35)।

ख्रीस्त में मेरे प्रिय भाईयो और बहनो, अक्सर हमारे जीवन में हम देखते हैं कि हमारी सोच हमेशा ऊँची होती है। हमेशा हम बडे पद पर रहना चाहते हैं। कभी भी हम अपने आप को छोटे पद पर देखना नहीं चाहते हैं, चाहे वह समाज मे हो या फिर किसी अन्य स्थान पर। ठीक उसी तरह आज के पवित्र सुसमाचार में हम सुनते हैं कि शिष्यों के मन में भी यही होता है। जब वे येसु के साथ रास्ते में जा रहे थे तो उनके बीच में यह बात छिड़ गई थी कि हम में से सबसे बडा कौन है? घर आने पर येसु शिष्यों से पूछते हैं कि रास्ते में आप लोग किस विषय पर विवाद कर रहे थे? वे चुप रह गये, क्योंकि उन्होंने रास्ते में इस विषय पर वाद-विवाद किया था कि हम में से सबसे बड़ा कौन है?

शिष्यों के विचारों को जानकर येसु बोले "जो पहला होना चाहता है, वह सबसे पिछला और सबका सेवक बने" (मारकुस 9:35) इसका तात्पर्य यह है कि येसु का राज्य स्वयं की प्रतिष्ठा एवं महिमा की खोज में नहीं बल्कि दूसरों की सेवा करने में हैं। हमें इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि हम भी प्रभु की सेवा-कार्यों के लिए बुलाये गए हैं। प्रभु ने हम में से प्रत्येक को सेवा कार्य करने के लिए चुना है। तो हमें प्रथम स्थान बडा होकर नहीं बल्कि समाज का सबसे पिछला व्यक्ति बनकर एवं समाज के गरीब लोगों की सेवा करके हासिल करना है।

हम पढते हैं मारकुस के सुसमाचार, अध्याय 10, वाक्य संख्या 45 में कि येसु स्वंय कहते हैं, "मानव पुत्र अपनी सेवा कराने नहीं, बल्कि सेवा करने और बहुतों के उद्धार के लिए अपने प्राण देने आया है"। सेवा कार्य का महत्व हम येसु के जीवन मे देखते हैं, किस तरह उन्होने गुरू और प्रभु हो कर भी अपने शिष्यों के पैर धोये। उन्होने गुरू होते हुए भी एक नौकर की भाँति सेवा का एक सच्चा उदाहरण देकर अपने शिष्यों को भी ऐसा ही करने का आदेश दिया। इस तरह उन्होंने मानवता की सेवा हेतु अपना सम्पूर्ण जीवन समर्पित कर दिया।

येसु ख्रीस्त के इस उदाहरण को अब मुझे और आपको अपने जीवन द्वारा साकार करने की जरूरत है, अर्थात् हमारा जीवन सेवा का जीवन होना चाहिए। येसु के पद-चिन्हों का अनुसरण करते हुए हमें भी लोगों की, विशेष करके जरूरतमंदो, बेसहारों, गरीबों तथा पददलितों की सहायता हेतु तैयार रहना चाहिए।

जैसा कि मत्ती के सुसमाचार, अध्याय 25, वाक्य संख्या 40 में हम पढते हैं, "मैं तुम लोगों से यह कहता हूँ, तुमने मेरे इन भाइयों में से किसी एक के लिए, चाहे वह कितना ही छोटा क्यों न हो, जो कुछ किया, वह तुमने मेरे लिए ही किया"। हम में से प्रत्येक व्यक्ति सेवक बनने के लिए बुलाया गया है। सामाजिक प्राणी होने के नाते हम मनुष्यों को अपना जीवन व्यतीत करने के लिए दूसरों की सहायता की जरूरत पड़ती है।

ईश्वर ने हम सभी को अलग-अलग प्रकार की बुलाहट दी है। आज मुझे और आपको स्वयं से यह प्रश्न करना चाहिए, “क्या मुझे जो बुलाहट मिली है, उसका मैं सही तरीके से उपयोग कर रहा हूँ या फिर दूरुपयोग कर रहा हूँ? क्या मुझे जो अवसर मिलता है, उसका मैं दूसरों की सेवा करने के लिए उपयोग करता हूँ? या नहीं। हम किसी भी कार्य-क्षेत्र में कार्यरत क्यों न हो, हमें दूसरों की सेवा करने का जो अवसर मिलता हैं, उसे गँवाना नहीं चाहिए। आइये हम ईश्वर से प्रार्थना करें कि हमें जो सेवा करने का अवसर या कार्य-भार सौंपा गया है, उसे हम भली भांति एवं ईमानदारी से निभायें तथा हमें येसु द्वारा निर्धारित मार्ग को अपनाने की आशिष एवं कृपा प्रदान करें, ताकि हम भी निर्धनों के साथ रहकर तथा सभी के सेवक बनकर महानता का अनुभव कर सकें। आमेन !