Kapil Dev

चक्र- ब – इक्कीसवाँ इतवार

योशुआ 24:1-2, 15-17,18; एफ़ेसियों 5:21-32; योहन 6:60-69

ब्रदर कपिल देव (ग्वालियर धर्मप्रान्त)


ख्रीस्त में मेरे प्रिय भाइयों और बहनों,

आज के जमाने में अक्सर यह देखा जाता है कि अगर माता-पिता अपने बच्चों को शिक्षा देते हैं, तो बच्चे उस शिक्षा का पालन करने में बड़ी कठिनाइयाँ महसूस करते हैं। जब उस शिक्षा को माता-पिता के द्वारा बार-बार दोहराया जाता है, तो बच्चे उस शिक्षा से ऊबने लगते हैं; वे चिडचिडे हो जाते हैं और माता-पिता से गुस्सा करने लगते हैं। ये गुस्सापन उन्हें अकेलेपन में ढकेल देता है। फ़िर आप जानते ही हैं कि उन बच्चों को किन-किन परिस्थितियों से गुजरना पड़ता है।

आज के सुसमाचार में भी हम एक ऐसी शिक्षा की बात सुनते हैं, जिसका अनुसरण करने में प्रभु येसु के शिष्य कठिनाइयाँ महसूस करते हैं। बहुत से शिष्य प्रभु येसु का अनुसरण करना छोड़ देते हैं या कहे कि प्रभु येसु की शिक्षा को त्याग देते हैं। परन्तु प्रश्न यह है कि ये प्रभु येसु को क्यों छोड़ देते हैं। इसके बहुत से कारण हो सकते हैं।

पहला कारण: सच्चे ईश्वर की पहचान न होना।

जैसे कि हम पहले पाठ में देखते हैं, योशुआ इस्राएलियों को याद दिलाते हैं कि हमारे पूर्वज, इब्राहीम के पिता तेरह, ने फ़रात नदी के उस पार अन्य देवताओं की उपासना की थी क्योंकि वे सच्चे ईश्वर से अवगत नहीं थे। परन्तु अभी हमारे पास हमारे पिता इब्राहीम का एक सच्चा ईश्वर है। इसलिए हमें यह समझना चाहिये कि हमें किस ईश्वर की पूजा-आराधना करनी है, हमें यह समझना चाहिये कि हमें किस ईश्वर के शब्दों में अनंत जीवन मिलता है। क्या कभी ईश्वर ने हमारे साथ विश्वासघात किया है? क्या हमें कभी ईश्वर ने त्यागा है? इसलिए हमें अपने लिए एक सच्चे ईश्वर का चयन करना है। क्योंकि जिसे सच्चे ईश्वर की पहचान होती है वह उसे न तो कभी त्यागता है और न ही कभी उसे छोड्ता है। परन्तु वह उसकी ओर अभिमुख रहता है। इसलिए हमें अन्य देवताओं के प्रति संकोच रखना चाहिए और सच्ची भक्ति व समर्पण के साथ सच्चे ईश्वर की सेवा में लीन रहना चाहिए।

दूसरा कारण: सांसारिक जीवन को आध्यात्मिक जीवन से ज्यादा महत्व देना।

जब हम संसार में रहते हैं तब हम संसार की बातें करते हैं। हम अक्सर इस संसार में भटकते रहते हैं, अन्य मायावी प्रभावों के चक्कर में घिर जाते हैं। हमारे चारों ओर कितने सारे आकर्षक विकल्प होते हैं! इसी कारण कुछ शिष्यों के लिए प्रभु येसु भी एक आकर्षक विकल्प रहें होंगे। इसीलिए वे उनमें एक राजनैतिक नेता देख रहे होंगे, जो अपना राज्य जल्द ही स्थापित करने वाले होंगे। परन्तु जब प्रभु येसु अपने दिव्य शरीर का रहस्य लोगों के सामने प्रकट करते हुए योहन 6: 53 में कहते हैं, “मैं तुम लोगों से यह कहता हूँ - यदि तुम मानव पुत्र का मांस नहीं खाओगे और उसका रक्त नहीं पियोगे, तो तुम्हें जीवन प्राप्त नहीं होगा”। परन्तु प्रभु येसु के बहुत-से अनुयायी यह सुनकर कहने लगते हैं, "यह तो कठोर शिक्षा है। इसे कौन मान सकता है”? इसी कारण प्रभु येसु के बहुत से शिष्य उनका अनुसरण करना छोड़ देते हैं।

हालांकि, सिमोन पेत्रुस और बाकी शिष्य अनन्त जीवन के शब्दों के प्रति अपनी भक्ति को व्यक्त करते हुए योहन 6:68 में कहते हैं, "प्रभु! हम किसके पास जायें! आपके ही शब्दों में अनन्त जीवन का सन्देश है”। हम सभी को भी यह स्वीकारना चाहिए कि प्रभु के शब्द हमारे लिए हमेशा प्रेरणादायक व अनन्त जीवन का स्रोत हैं। हमें उनके शब्दों से हमारे जीवन में सच्ची संतुष्टि प्राप्त होती है, जैसे प्रेरितों ने अपने जीवन में उनके शब्दों के रस का अनुभव किया था। जैसे हम योहन 6:69 में पाते हैं, हमें भी सिमोन पेत्रुस की तरह स्वीकारते हुए कहना है, "हम विश्वास करते और जानते हैं कि आप ईश्वर के भेजे हुए परमपावन पुरुष हैं।" जो भी यह स्वीकार तथा विश्वास करता है, उससे प्रभु येसु अनन्त जीवन का वादा करते हैं।

आइए, हम ईश्वर से प्रार्थना करें कि ईश्वर हमें भी अनन्त जीवन के रस का पान करायें जिससे हम भी कठिन परिस्थितियों में प्रभु येसु के सच्चे अनुयायी बने रहें। इसी संदेश को ध्यान में रखते हुए हम अपने जीवन को ईश्वर की सेवा तथा प्रेम में जीने योग्य बनायें। आमेन