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चक्र- ब – सामान्य काल का दूसरा रविवार

1 समुएल 3:3-10,19; 1कुरिन्थियो 6:13-15,17-20; योहन 1:35-42

- ब्रदर अजित ए. (भोपाल महाधर्मप्रान्त)


ख्रीस्त में प्यारे विश्वासियों

हम सामान्य काल के दूसरे रविवार में प्रवेश कर रहें है। आज के पाठ हमें हमेशा की तरह ईश्वर की आवाज़ को ऊँचे स्वर से सुनने और हमें उनके शिष्य बनने के लिए आमंत्रित करते हैं। माता कलीसिया हमें याद दिलाती है कि ईश्वर की पुकार वास्तविक है और वह व्यक्तिगत रूपसे हममें से प्रत्येक को नाम से जानता और बुलाता है। इस प्रकार वह हमें अपने शरीर और आत्मा से इस आह्वान का प्रभावी ढंग से जावब देने के लिए प्रोत्साहित करता है।

आज का पहला पाठ समुएल के बुलावे को नाटकिय ढंग से प्रस्तुत करता है। दरअसल यह हमें अपनी बुलाहट की याद दिलाता है। कई बार हम इस शोर-शराबे वाली दुनिया में रहते समय हमारे मन में यह प्रश्न आता है कि किस प्रकार हम ईश्वर से बात करें और उनकी पुकार का जावब दें। यदि हम आन्तरिक और बाहरी शोर दोनों के विरूद्ध स्वंय को अनुशासित करें तो हम ईश्वर की वाणी को परिपूर्ण रूप से सुन सकेंगे। ईश्वर पिता के रूप में हर दिन हमसे बात करना चाहता है और हमारी उपस्थिति के लिए हमेशा तरसता है। हालाँकि एक मात्र समस्या यह है कि ज्यादातर हम इतने व्यस्त हो जाते हैं कि हमारे पास प्रभु को सुनने के लिए मुश्किल से समय होता है। इसलिए हमें समुएल की तरह उनकी उपस्थिति में रहना है और यह कहने के लिए तैयार रहना है कि प्रभु, बोल तेरा सेवक सुन रहा है।

आज के दूसरे पाठ द्वारा संत पौलुस नैतिक धर्मशास्त्र को प्रस्तुत करते है। पौलुस हमें याद दिलाते है कि हमारा शरीर पवित्र आत्मा का मंदिर है। प्रत्येक पाप व्यक्ति के आध्यात्मिक विकास को धीमा कर देती है। नतीजतन, यह ईश्वर की पुकार को प्रभावी ढंग से जवाब देने की क्षमता को सुस्त कर देती है। इसके माध्यम से पौलुस हमारा ध्यान नैतिकता और आध्यत्मिकता के बीच संबंधों की ओर आकर्षित करते हैं। संत पौलुस हमें यह भी याद दिलाते हैं कि हम पूरी तरह से ईश्वर के हैं, इसलिए ईश्वर के लिए अपने शरीर एवं आत्मा को दुनिया की वासनाओं से सुरक्षित रखना उसकी पुकार का उत्तर देने का एक बहुत महत्तपूर्ण तरीका है।

आज का सुसमाचार हमें प्रभु येसु की प्रारंभिक सेवा-कार्य से परिचित कराता है और हमें ईश्वर की पुकार के प्रति अपनी प्रतिक्रिया पर विचार करने की चुनौती देता है। जैसा कि प्रभु ने अपने पहले शिष्यों से कहा था वैसे ही वे हम से कहते हैं, “आओ और देखो”। हम देखते हैं कि अंन्द्रेयस ने अपने भाई पेत्रुस को भी उन्हीं शब्दों के साथ आमंत्रित किया। “आओ और मसीह को देखो”। हम संत योहन 4:29 में भी देखते हैं कि प्रभु येसु से मुलाकात के बाद, समारी स्त्री ने अपने लोगों को उसी शब्द के साथ आमंत्रित किया “आओ और प्रभु को देखो”। प्यारे विश्वासियों, यह हम सब के लिए मसीह का अनुसरण करने का निमंत्रण है। इस निमंत्रण का जवाब देना हमारा दैनिक मामला है जिसके लिए हमारी संपूर्ण अस्तित्व की आवश्यकता होती है। साथ ही हमें दूसरों को प्रतिक्रिया देने में मदद करने की भी आवश्यकता है। हमें विश्वास करना है कि ईश्वर हमें हर दिन नाम से बुलाता है और कहता है, “आओ मेरे पीछे आओ, और देखो”। इसलिए आज के स्तोत्रकार की तरह हमारी प्रतिक्रिया यह होनी चाहिए कि प्रभु मैं यहाँ हूँ, मैं तेरी इच्छा पूरी करने आया हूँ। यह तब होगा जब हम अपने शरीर और आत्मा को पवित्र रखें और हमेशा ईश्वर के सान्निध्य में रहें ताकि उनकी आवाज़ को पहचान कर उनके अच्छे अनुयायी बन सकें। आमेन।।