उत्पत्ति 12: 1-4; 2 तिमथी 1: 8-10; मत्ती 17: 1-9
ख्रीस्त में प्यारे विश्वासीगाण, ईश्वर पर अथाह विश्वास कर पाना आधुनिक मानव की सबसे बड़ी समस्या है। आजकल मानव दुनियायी चीज़ों में इतना खो गया है कि उसे ईश्वर की ओर मुड़ने का समय ही नहीं है- वह धन संपत्ति, सुख-सुविधाएँ और यश पाना अपना परम लक्ष्य मानता है। और उन्हें प्राप्त करने के लिए कोई सा भी रास्ता अपनाने को तैयार हो जाता है।
आज हम चालीसे के दूसरे रविवार में प्रवेश करते है। आज माता कलीसिया हमें यह अवसर प्रदान करती है कि हम अपना पापमय जीवन त्याग कर ईश्वर में सच्चे विश्वास का नमूना बनें। आज के पहले पाठ में हमें यह सुनने को मिलता है कि ईश्वर इब्राहीम को राष्ट्रों का पिता बनने के लिए चुनते हैं। अतः इब्राहीम के लिए यह एक चुनौती थी क्योंकि वह एक धनी व्यक्ति थे और उन्हें यह निमंत्रण स्वीकार करने के लिए बहुत त्याग करने की आवश्यकता थी। इब्राहीम अपनी धन-दौलत एंव सगे-संबंधियों को छोड़कर आज्ञात देश जाने को तैयार हो जाते हैं क्योंकि उसे पूर्ण विश्वास था कि ईश्वर अपनी प्रजा को कभी भटकने नहीं देगा। इसी अटल विश्वास के कारण इब्राहीम ईश्वर की आज्ञा का पालन करने में सक्षम थे।
जब ईश्वर इब्राहीम को बुलाता है तब वह 75 वर्श का था और उसकी पत्नी भी बूढ़ी हो चली थी। फिर भी ईश्वर उसे आश्वासन देता है कि तुम्हारे वंशज आकाश के तारों के समान असंख्य होंगे। इब्राहीम ईश्वर की बातों पर विश्वास करते हैं। इस कारण प्रभु ने उन्हें धार्मिक माना। ईश्वर पर विश्वास रखने के लिए हमें हमारी बुद्धि, शक्ति और अपनी इच्छा पर आश्रित रहने की आवश्यकता है। विश्वास ईश्वर का वरदान है। जब हम इस वरदान को स्वीकार करेंगे तब हम भी इब्राहीम के समान हमारे विश्वास को सुदृढ़ बनाए रखेंगे।
आज के सुसमाचार में हम देखते हैं कि शिष्यों को प्रभु येसु पर विश्वस करने के लिए कितना संघर्ष करना पड़ा। येसु के साथ कई दिनों तक रहने एवं उनके चमत्कारों को देखने पर भी वे उन्हें ठीक तरह से नहीं समझ पा रहे थे। क्रूस पर अपनी मृत्यु के कुछ दिन पहले येसु प्रेरितों को अपने दुःखभोग, मरण एंव पुनरूत्थान के बारे में बताते हुए कहते हैं ‘‘मानव पुत्र को दुःख भोगना, मार डाला जाना एंव तीसरे दिन फिर जी उठना होगा।’’ येसु की इन गंभीर बातों को सुनकर पेत्रुस और दूसरे प्रेरितों पर मायूसी छा गई, किंतु येसु उनके विश्वास को और भी दृढ़ बनाना चाहते थे, इसलिए वे अपने चेलों को, विशेष रूप से पेत्रुस, योहन एंव याकूब को लेकर एक पहाड़ पर जाते हैं और वहाँ उनकी नज़रों के सामने ही येसु का रूपान्तरण हो जाता है। वहाँ पर प्रभु येसु अपनी महिमा को आंशिक रूप में प्रकट करते हैं। इसके द्वारा येसु अपने शिष्यों को आने वाले विपत्ति से लड़ने के लिए सक्षम बना रहे थे।
जब हम अपने जीवन में येसु का अनुभव करते हैं, तब हमें भी सभी विपत्तियों से लड़ने और उनका सामना करने का बल प्राप्त होता है। जैसा कि इब्रानियों के पत्र 12:2 में कहा गया है ‘‘ईसा हमारे विश्वास के प्रवर्तक हैं और उसे पूर्णता तक पहुँचाते है। उन्होंने भविष्य में प्राप्त होने वाले आनंद के लिए क्रूस का कष्ट स्वीकार किया।’’
येसु के रूपान्तरण से हमें यह ज्ञात होता है कि दुःखभोग और मरण का फल पुनरूत्थान है। येसु ने एम्माउस जाने वाले चेलों से कहा- ‘‘क्या यह आवश्यक नहीं कि मसीह दुःख सहन कर अपनी महिमा में प्रवेश करें?’’ अतः दुःख भोगना ही महिमा का मार्ग है। आज प्रभु येसु भी हमें इस पुनरूत्थान की महिमा में भाग लेने के लिए बुलाते हैं और कहते हैं कि उस महिमा का एकमात्र रास्ता क्रूस और दुःखभोग है।
आज दुःख-तकलीफ व पीड़ा सहनें वालों के लिए यह संदेश है कि वे निराश न हों, बल्कि विश्वास के साथ अपना क्रूस वहन करें क्योंकि क्रूस ही महिमा का एकमात्र रास्ता है। आज हम इस ख्रीस्तयाग में प्रार्थना करें कि हम पापमय जीवन को त्यागकर येसु पर अपना विश्वास दृढ़ कर सकें और क्रूस की राह पर चलते हुए अपने को येसु की महिमा के भागीदार होने के लिए तैयार कर सकें।