प्रेरित-चरित 2:14,22–33; 1 पेत्रुस 1:17–21; लूकस 24: 13–35
आज के सुसमाचर में हम एम्माऊस जाने वाले दो शिष्यों के बारे में सुनते है। उन 2 शिष्यों ने पुण्य शुक्रवार को प्रभु येसु का दुखभोग अपनी आंखों से देखा था। यह घटना उनकी समझ से परे थी, क्योंकि जिस येसु ने शिष्यों के सामने मृतकों को जिलाया, अंधों को दृष्टि दान दिया, अनेक कुष्ठरोगियों, लंगड़े, लूलो को चंगा किया, वही येसु इन क्रूर सिपाहियों के हाथ मारा गया, यह बात उनके लिए अविश्वसनीय थी। उनका विश्वास था कि येसु इस्राएलियों को मुक्ति देंगे। परंतु वह मर गये। इस कारण वे शिष्य निराश होकर येरुसालेम छोड़कर अपना गांव एम्माऊस की ओर जा रहे थे। रास्ते में वे दोनों येरुसालेम में जो घटना हुई उस पर चर्चा कर रहे थे, विशेषकर प्रभु के पुनरुत्थान के बारे में। तब एक अजनबी, जो उसी रास्ते से चल रहा था उनके साथ हो लिया। उसने शिष्यों से पूछा कि आप लोग किस विषय पर इतनी गंभीरता से बहस कर रहै है? शिष्यों को आश्चर्य हुआ की उस व्यक्ति को येरूसालेम में सबके सामने हुई घटनाओं के बारे कुछ भी मालूम नही था। तब उन्होंने यरूसालेम में येसु के साथ जो कुछ हुआ था उसका पूर्ण वर्णन उस अजनबी व्यक्ति को सुनाया। संध्या हो चली थी, और वे अपने गांव के निकट आ गाये थे। अतः उन्होंने उस अजनबी से उनके साथ रुकने का आग्रह किया। भोजन करते समय उस अजनबी ने रोटी लेकर आशिष की प्रार्थना की और रोटी तोड़ कर उनको दी, तब तुरंत उन शिष्यों की आंखें खुल गई और उन्होंने यह पहचाना कि वह अजनबी व्यक्ति येसु ही था, किंतु जल्दी ही येसु उनकी दृष्टि से ओझल हो गये।
पुनरुत्थान के बाद येसु शिष्यों के सामने कई बार प्रकट हो जाता है पर वे उसे पहचान नहीं पाते हैं। योहन 21:9–15, मरकुस 16:12 योहन 11:25–26 में इन घटनाओं के विवरण हैं। दोनों शिष्य तुरंत येरुसालेम लौटे, ताकि अपने अनुभव दूसरों के साथ बांट सकें। इन शिष्यों का अनुभव हमारे जीवन को भी प्रेभावित करता है। क्योंकि कभी-कभी हम अपनी प्रतिदिन की मुसीबतों एवं व्याकुलाथाओं के कारण जिंदगी से ऊब जाते हैं। हर दिन हम जागते हैं, काम करते हैं, भोजन करते हैं और पुनः सो जाते हैं। ऐसी जिंदगी से हम थक जाते हैं। ऐसी स्थिति में येसु के वचन हमें एक नई आशा प्रदान करते हैं। अक्सर लोगों से हम सुना करते हैं कि हमारे जीवन के मकसद क्या है? हमारी जिंदगी दुख तकलीफ की जिंदगी क्यों है? प्रभु येसु ने अपने जीवन, मृत्यु एवं पुनरुत्थान द्वारा हमारे सभी सवालों को जवाब दिया है। उन शिष्यों के अनुभव से हमें यह शिक्षा मिलती है कि हमारी निराशामय परिस्थितियों में प्रेभु येसु आशा जागते हैं। सुसमाचार में हम देखते हैं कि शुरू में शिष्य दुखित एवं निराश होकर वापस जा रहे थे। लेकिन येसु से मुलाकात होने के बाद वे अति प्रसन्न होकर येरूसालेम लौटते हैं। युखारिस्तीय बलिदान में अगर हम अपने दुःख–दर्द तथा निराशा को रोटी और दखरस के साथ प्रभु को चढ़ाते हैं, तो अवश्य ही हम प्रभु येसु की उपस्थिति को पहचान लेंगे और वे हमें शान्ति तथा आनंद प्रदान करेंगे।
हमारा प्रत्येक मिस्सा बलिदान एम्माऊस की घटना का वास्तविक प्रतिरूप हैं। आज भी हम प्रत्येक मिस्सा में प्रभु येसु से मुलाकात करते हैं। येसु अपने शरीर, रक्त एवं वाणी अपने शिष्य या पुरोहित द्वारा हमें प्रेदान करते हैं। मिस्सा में पुरोहित प्रभु की वाणी की घोषणा करते हैं और येसु का शरीर तोड़कर हमें प्रदान करते हैं, जिससे हम भी ख्रीस्त के समान बन जाते हैं।
येसु जीवन के हर मोड़ पर सहायता करने के लिए हमारे साथ हैं। वे हर सीमा को लांधकर, मृत्यु पर विजय पाकर तथा आत्मरूप धारण कर हमारे बीच में विद्यमान हैं, ताकि वह हमारी पुकार सुन सकें, हमारी मदद कर सकें और हमें सफलता की ओर ले जा सकें।