Albin_Lukose

चक्र-अ– सामान्य काल का तैंतीसवाँ इतवार

सूक्ति 31:10-13, 19-20,30-31; 1 थेसलनीकियो 5:1-6; मत्ती 25:14-30

ब्रदर अल्बिन लूकोस (खंडवा धर्मप्रान्त)


ख्रीस्त में मेरे प्रिय भाईयों और बहनों,

स्वर्ग राज्य के योग्य जीवन जीने के लिए प्रभु हमें आमंत्रित करते हैं। प्रभु येसु ने स्वयं राज्य के महत्व एवं उद्देश्य के बारे में विभिन्न शिक्षाएं दी। स्वर्ग राज्य की स्थापना में हम भी प्रभु येसु के साथ सहभागी हैं। ख्रीस्तीय होने के नाते यही हमारा कर्तव्य बनता है, जिस के लिए हमें जाग्रत रहने तथा ईमानदार जीवन जीने की जरूरत है।

आज के सुसमाचार में हम अशर्फियों का दृष्टान्त का वर्णन पाते हैं। प्रभु येसु स्वर्ग राज्य की तुलना एक धनी व्यक्ति से करते हैं, जिसने विदेश जाने के पूर्व अपनी सम्पति अपने सेवकों को सौंप दी थी। उसने प्रत्येक की क्षमता का ध्यान रखते हुए एक को पाँच हजार, दूसरे को दो हजार और तीसरे को एक हजार अशर्फियाँ दी। मालिक के चले जाने के पश्चात सौंपी गयी सम्पति को संभालने की जिम्मेदारी सेवकों पर थी। वे तीनों में से दो सेवकों ने प्राप्त अशर्फियों का उचित उपयोग कर दोगुना लाभ उत्पन्न किया और अपने स्वामि के सामने योग्य पाये गये। परन्तु तीसरे सेवक ने, जिसे एक हजार अशर्फियों मिली थी, अपनी आलस्य, कम आत्म-सम्मान और बेईमान व्यवहार के कारण कुछ भी करने का प्रयत्न नहीं किया तथा वह अपने स्वामी के सामने अयोग्य एवं दोषी पाया गया।

इस दृष्टांत के दौरान हमें बहुत कुछ सीखने को मिलता है। पहला है- वरदान को पहचानना और विकसित करना। हमें ईश्वर से अनेक वरदान प्राप्त हुए हैं। हर एक को अपनी-अपनी क्षमता के अनुसार ईश्वर वरदान देते हैं, क्योंकि वे हमें पूरी तरह जानते हैं। हमें इन वरदानों को पहचानने, समझने, स्वीकार करने और सही प्रयोग कर विकसित करने की आवश्यकता है। हर व्यक्ति को अलग-अलग प्रतिभायें मिलती हैं। किसी को गाना गाने की, किसी को भाषण देने की, किसी को लिखने की, किसी को कलाकार्यों की, किसी को सेवाभाव की और किसी को शासन करने की। हर किसी को सब कुछ करने की क्षमता नहीं मिलती, किन्तु प्रत्येक को अपने-अपने वरदान को प्रसन्नता से स्वीकार करते हुए सफलता की ओर आगे बढ़ना है।

दूसरा है- ईमानदारी के साथ कर्तव्य निभाना। मानव होने के नाते हमें विभिन्न प्रकार की कर्तव्य सौंपा गया है। हमें दिया हुआ कर्तव्य हमारे प्रति किसी का विश्वास को दर्शाता है। इस कर्तव्य को अच्छी तरह निभाने के लिए ईमानदार होना अनिवार्य है। ईश्वर भी यही चाहते हैं कि हम ईमानदार रहें, क्योंकि हमारे हर एक कार्य के लिए हमें ईश्वर के सामने लेखा देना पड़ेगा।

अक्सर हम यह अनुभव करते हैं कि कई बार लोग अपनी कमियों में कम आत्म सम्मान रखते हैं। वे दूसरों के साथ स्वयं की तुलना करते हैं और अपने को तुच्छ समझते हैं, फलस्वरूप असफलता प्राप्त करते हैं। हमें यह समझने की आवश्यकता है कि हमारी कमियाँ या ताकत हमें असफलता नहीं दिलाती बल्कि मेहनत और ईमानदारी ही हमें सफल बना सकती हैं।

आइए, हम स्वर्ग राज्य की स्थापना में जाग्रत एवं सतर्क बने रहें, ईश्वर से पाये हुए वरदानों को खुशी से स्वीकार करें और कड़ी परिश्रम के साथ आगे बढ़ें। प्रभ हमें आशिष एवं बल प्रदान करें।