मलआकी 1:14-2:2, 8-10; 1 थेसलनीकियो 2:7-9.13; मत्ती 23:1-12
कथनी व करनी में तालमेल
हम हमारे जीवन में बहुत कुछ करना चाहते हैं। इसका बखान भी हम हमारे मित्रों और रिश्तेदारों को से करते हैं यह स्वाभाविक है, अपने मन की इच्छा को दूसरों को बताना। परंतु प्रश्न यह उठता है क्या मैं जो कह रहा हूँ उसे अपने जीवन में अमल कर पाता हूँ या नहीं? मेरे कथन करनी में बदलते हैं या नहीं? कथनी करनी की अपेक्षा आसान मानी जाती है। कथनी मुँह से बोले गए वचन है, जबकि करनी दिल और शरीर द्वारा निभाए गए कार्य है। कुछ ऐसा ही हम आज के सुसमाचार और पाठों में पढ़ते हैं। प्रभु येसु शास्त्रियों ओर फरीसियों को देखकर उनके आचरण का अवलोकन करने के बाद लोगों तथा अपने शिष्यों को कहते हैं, कि तुम लोग उनके कथनानुसार नियमों का पालन करो, परंतु उनके कर्मों का अनुसरण मत करो.. क्योंकि वह कहते हैं बहुत, पर करते कुछ नहीं उनकी कथनी और करनी में बहुत अंतर है। प्रभु येसु को शास्त्रीयों व फरीसियों के लिए ढोंगी शब्द का प्रयोग करते भी हमने सुना होगा. इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि उनका आचरण और व्यवहार किस प्रकार का होगा। जिसके फलस्वरुप प्रभु येसु लोगों को उनके कर्मों का अनुसरण न करने के लिए कहते हैं।
हम भी हमारे जीवन में जरा झांक करके देखें और मनन करें कहीं मैं भी शास्त्री और फरीसी की तरह अपना जीवन नहीं जी रहा हूँ, यह सत्य हैं कई बार हम जो कहते हैं वह करते नहीं और इस बात को हम नकार नहीं सकते इसलिए किसी ने सही कहा हैं। "असफल वही होते हैं, जो कहते तो हैं, पर करते नहीं। (सन्त याकूब के पत्र अध्याय 1:22) में लिखा हैं। आप लोग अपने को धोखा नहीं दें। वचन के श्रोता ही नहीं, बल्कि उसके पालन कर्ता भी बनें। यदि हमारे ख्रीस्तीय जीवन को देखा जाए तो एक बात हमें देखने को मिलती हैं। हम सभी विश्वास भाई-बहन कलीसिया के सभी नियमों का पालन करते हैं, प्रार्थना एवं मिस्सा बलिदान में भाग लेते हैं, परंतु हमारे जीवन में कोई परिवर्तन नहीं होता हैं। इसका अर्थ यही हैं, कि हमारे कथनी व करनी में तालमेल नहीं हैं। हम जो वचन सुनते हैं, उसके अनुरूप अपना जीवन व्यतीत नहीं करते। जैसा कि आज के पहले पाठ में हम ने सुना। धिक्कार उस धूर्त को जो अपने रेवड़ में नर पशु को पालकर चढ़ाने की मन्नत मानता हैं, किंतु उसके स्थान पर दूषित पशु को चढ़ाता है।' अर्थात जो उसने कहा उसका वो पालन नहीं करता हैं। आज प्रभु येसु हमें कलीसिया की शिक्षा स्वीकार कर उसका पालन करने के लिए उपदेश देते हैं। हम येसु ख्रीस्त द्वारा व्यक्तिगत रूप से बुलाए गए हैं। हम येसु के अनुयाई है। अतः येसु ख्रीस्त के वचनों का अनुसरण करना हमारा कर्तव्य है। लेकिन हमारा कर्तव्य केवल कथनी तक ही सीमित नहीं होना चाहिए उसे करनी में परिवर्तित करना चाहिए। इसलिए सन्त योहन के पहले पत्र अध्याय 3 पद संख्या 18 में वचन कहता है, हम वचन से नहीं, कर्म से मुख से नहीं, हृदय से एक दूसरे को प्यार करें।
आज के दूसरे पाठ में हम सुनते हैं, संत पौलुस थेसलनीकीया में धर्म प्रचार का कार्य करते हैं। सन्त पौलुस यहाँ अपने अधिकार का प्रदर्शन नहीं करते हैं, बल्कि लोगों की सेवा करते हैं। अपने बच्चों का लालन-पालन करने वाली माता की तरह लोगों के साथ कोमल व्यवहार करते हैं, कठोर परिश्रम एवं सुसमाचार का प्रचार करते हुए दिन रात काम करते रहे। यहाँ सन्त पौलुस के जीवन में हम कथनी व करनी में ताल-मेल देखने को मिलता है। तो आइए हम हम प्रभु वचनों पर मनन करते हुए जो भी हम हमारे जीवन में करना चाहते हैं, उसे पूरा करने के लिए भरपूर परिश्रम करें, ना की अज्ञानी व्यक्ति की तरह सिर्फ बातें करें उसके अनुसार अपने जीवन में व्यवहार भी करें।