एजेकिएल 18:25-28; फिलिप्पियों 2:1-11; मत्ती 21:28-32
ख्रीस्त में प्यारे विश्वासी गण, आज का पहले पाठ, नबी एजेकिएल के ग्रंथ से लिया गया है। प्रभु को इस बात का आश्चर्य है कि जिस इस्राएल को वे मिश्रियों के फंदे से छुड़ाकर प्रतिज्ञा देश ले आये, आज वही प्रजा प्रभु के व्यवहार को अनुचित कह कर प्रभु को दुखित करती है। किंतु प्रभु अपने व्यवहार को पूर्णत: न्याय संगत बताते हुए इस्राएलियों की आलोचना करते हुए कहते हैं कि उनका ही व्यवहार न्याय संगत नहीं है। आज हमें भी अपने व्यवहारों को जांचने की आवश्यकता है, कि कहीं हम भी इस्राएलियों के समान हमारे जीवन में होने वाली घटनाओं के लिए प्रभु पर दोष तो नहीं लगाते हैं? हमारी हार या असफलता के लिए प्रभु को जिम्मेदार तो नहीं ठहराते हैं? साथ ही आज के इस पाठ द्वारा माता कलीसिया हमें प्रभु का यह वचन भी याद दिलाती है, "भाइयों एक दूसरे की शिकायत ना करें, जिससे आप पर दोष न लगाया जाए। देखिए न्यायकर्ता द्वारा पर खड़े हैं” (संत याकूब 5:9)।
आज का सुसमाचार संत मत्ती 21: 28-32 से लिया गया है। प्रभु हमारे सामने दो पुत्रों का दृष्टांत प्रस्तुत करते हैं। इस दृष्टांत के द्वारा पिता की आज्ञा का पालन करने पर जोर दिया गया है। वचन में दो तरह के लोगों के विषय में वर्णन मिलता है। पहला, जो वादा करते हैं, पर उसे निभाते नहीं और दूसरा, जो उस वक्त तो बात नहीं मानते लेकिन थोडी देर के बाद पछताते हुए आज्ञा का पालन करते हैं। आज के सुसमाचार में महायाजक तथा जनता के नेता दृष्टांत के पहले बेटे की जगह लेते हैं। "क्योंकि वे कहते तो हैं, पर करते नहीं। वे बहुत से भारी बोझ बांधकर लोगों के कंधों पर लात देते हैं, परंतु स्वयं उंगली से भी उन्हें उठाना नहीं चाहते” ( संत मत्ती 23:4)। यह आवश्यक है कि हम दिखावे का जीवन न जिए, बल्कि हमारी बातों और व्यवहार में समानता होनी चाहिए। जिससे हम दूसरों के सामने डींग मारने वाले ना कहलाये।
प्रभु येसु ख्रीस्त नाकेदारों और वेश्याओं को दूसरे बेटे के रूप में हमारे सामने प्रस्तुत करते हैं। येसु उनकी सराहना करते हुए कहते हैं कि ईश्वर के राज्य में ये लोग पहले प्रवेश करेंगे, क्योंकि, उन्होंने योहन के वचन पर विश्वास किया और पश्चाताप करते हुए पाप का परित्याग किया और प्रभु येसु के मार्ग पर चलने का निश्चय किया। बाइबिल हमें ऐसे लोगों से रूबरूह कराती है, जिन लोगों ने सच्चे हृदय से पश्चाताप किया और ईश्वर की आज्ञा का पालन किया, संत पौलुस का जीवन प्रभु येसु के एकमात्र दर्शन से बदल गया। वे साऊल से पौलुस बन गए। संत पौलुस हमें दूसरे पाठ के माध्यम से यह बताते हैं, कि हमारे मनोभावों को येसु मसीह के मनोभावों के अनुसार बना लें। (फिलिप्पियों 2:5) हम भी प्रभु येसु के समान आज्ञाकारी बनें और पिता ईश्वर की इच्छा को पूरा करें। यदि हम अपना पापमय जीवन को त्याग देते हैं और येसु के बताए मार्ग पर चलते हैं, तो हमें अनंत जीवन प्राप्त होगा। "ईसा ने उन से कहा, 'मार्ग सत्य और जीवन में हूँ, मुझ से होकर गए बिना कोई पिता के पास नहीं आ सकता।” (संत योहन 14:16) जब हम प्रभु के आचरण को अपनाएंगे तभी हम, प्रभु के राज्य में प्रवेश कर सकेंगे।
ख्रीस्त में विश्वासी गण, हम बहुत बार महायाजकों एवं शास्त्रीयों के समान अपना हृदय खुला नहीं रखते हैं। प्रभु की आज्ञाओं के अनुसार नहीं चलते हैं और अपने जीवन में आने वाले दुख तकलीफ के लिए ईश्वर पर दोष लगाते हैं। परंतु जो अपने को धर्मी मानते और पश्चाताप की आवश्यकता को समझते हैं, प्रभु उनके लिए स्वर्ग का मार्ग तैयार करते हैं। प्रभु की इच्छा यह है कि हम पश्चाताप करें और एक ऐसा आदर्श बेटा या बेटी बनें, जो अपने पिता की बातों को सुनता है, उस हामी भरता है, हाँ कहता है और उसके अनुसार आचरण भी करता है।