यिरमियाह 20:10-13, रोमियों 5:12-15, मत्ती 10:26-33
ख्रीस्त में, मेरे प्रिय भाइयो और बहनो, हमें आज के पाठों में ईश्वर का आश्रय का अनुभव होता है। जब हम अपने पापों तथा गुनाहों पर पश्चात्ताप करते हैं, तब ईश्वर अपनी कृपा और अनुग्रह के द्वारा हमें पाप मुक्त करते हैं। अब प्रश्न यह उठता हैं कि पाप हमारे जीवन में कैसे प्रवेश करता है? पाप हमारे जीवन में तब प्रवेश कर पाता हैं, जब हम ईश्वर के सान्निध्य को महसूस करने में विफ़ल हो जाते हैं, जब हम ईश्वरीय कृपाओं को भुलाकर, संसार के लुभावनापन को देखकर, अपने दिल और मन को उसकी ओर आकर्षित होने देते हैं, जब हम ईश्वरीय या आंतरिक परामर्श को न सुनकर, शैतानीय या बहरीय परामर्श की ओर अग्रसर होते हैं। इसी कारण जब आदम और हेवा, ईश्वर के सान्निध्य से दूर होते हैं, तब शैतान इस अवसर का अच्छी तरह से फ़ायदा उठाता है। वह उन्हें लालच देकर ईश्वर की आज्ञा का उल्लंघन करवा के हमारे प्रथम माता-पिता के द्वारा संसार में पाप का जन्म करवा देता है। इसी पाप के कारण, हम ईश्वरीय कृपाओं, अनुग्रहों व अमरता के वरदानों से वंचित हो जाते हैं। इस प्राकार संसार में पाप के कारण मृत्यु का जन्म होता है। रोम 5:12 में संत पौलुस कहते हैं, "एक ही मनुष्य द्वारा संसार में पाप का प्रवेश हुआ और पाप द्वारा मृत्यु का। इस प्रकार मृत्यु सब मनुष्यों में फैल गयी, क्योंकि सब पापी हैं।" इसी पाप से बचने के लिये; जिन्हें ईश्वर के द्वारा अनुग्रह और पापमुक्ति का वरदान प्रचुर मात्रा में मिला हैं, वे ईसा मसीह के द्वारा जीवन राज्य प्राप्त करेंगे।
हम बहुत बार देखते हैं कि, जो ईश्वर के बताए हुए मार्गों पर चलते हैं, लोग उनके विरुद्ध फुसफुसाते हैं और तरह-तरह के अभियोग लगाते हैंI यही आज के पाठ में नबी यिरमियाह के साथ होता है। लोग उन पर अभियोग लगाने के लिए एक विशेष मौके की ताक में रहते हैं, जिससे वह बदनामी के डर से ईश्वर के मार्ग से भटक जाये। यही हर विश्वासी के साथ होने की संभावना होती हैं, जब हम कई बार अभियोग और अत्याचारों से बचने हेतु अपने विश्वास में डगमगाने लगते हैं। हमारे ऊपर बदनामी का भय इस कदर छा जाता है कि, हम अपने ईश्वर के आश्रय और अनुग्रह पर भरोसा नहीं कर पाते हैं। हमें, ईश्वर पर नबी यिरमियाह की तरह, अपने दुःख और कष्टों के समय शर्मिंदगी का अनुभव नहीं होना चाहिए। परंतु प्रेरितों की तरह, जो ईश्वर के नाम में दुःख और कष्ट सहने में, अपने आप को सौभाग्यशाली समझते हैं। हम यही बात निर्गमन ग्रंथ में देखते हैं। जब इस्राएली जनता कई बार ईश्वर और मूसा के विरुद्ध आपस में फुसफुसाते हैं, तो ईश्वर का क्रोध हठधर्मी इस्राएली जनता के विरुद्ध भटक उठता है। वह उनमें से बहुतों को दण्ड देता है।
हम अक्सर भूल जाते हैं कि हमें कभी भी ईश्वर के अभिषिक्त पर हाथ नहीं डालना चाहिए और न ही उनके विरुद्ध कोई षड्यंत्र रचना चाहिए। क्योंकि 1 समूएल 24:7 में वचन कहता है, "प्रभु यह न होने दे कि मैं अपने स्वामी, प्रभु के अभिषिक्त पर हाथ डालूँ; क्योंकि प्रभु ने उनका अभिषेक किया है।" हमें उस पराक्रमी शूरवीर प्रभु पर विश्वास करना चाहिए, जो दरिद्रों को अपने सामर्थ्य से दुष्टों के हाथों से छुड़ाता हैं। हमें उनसे नहीं डरना चाहिए जो हमारे जीवन के लिये घात लगाए होते हैं, परंतु उस ईश्वर से जो हमारे मन तथा हृदय की थाह लेता है, जो हमारे शरीर के साथ-साथ हमारी आत्मा पर भी अधिकार रखता है। हमें ईश्वर के उस संकल्प के बारे में विचार करने की आवश्यकता है, जिस उद्देश्य के लिये ईश्वर ने हमको चुना है। हम जो कुछ भी अंधेरे में प्रभु से सुनते हैं, उसे उजाले में सुनाना है। जो हम फ़ुसफ़ुसाते सुनते है, उसे हमें पुकार-पुकार कर कह देने के लिये आज का वचन हम से आग्रह करता है। हमें कभी भी मृत्यु के भय से वचन का प्रचार बंद नहीं करना हैं, बल्कि ईश्वर के आश्रय में दृढ होते हुए वचन का प्रचार करना है। जो ईश्वर का वचन कोने-कोने में फ़ैलाता है, ईश्वर का आत्मा उसमें निवास करता है। उसी के सामर्थ्य से निरे मनुष्य दूसरों के समाने येसु का प्रचार करते और उसे स्वीकार करते हैं। मत्ती 16:17 में वचन कहता है, 'तुम धन्य हो, क्योंकि किसी निरे मनुष्य ने नहीं, बल्कि मेरे स्वर्गिक पिता ने तुम पर यह प्रकट किया है।' हमें इसलिए ईश्वर से निरंतर प्रार्थना करनी चाहिए, जिससे कि हम सदैव उसके अनुग्रह और आश्रय के कृपा-पात्र बन रह सके।