दानिएल 7:9-10,13-14, 1पेत्रुस 1:16-19, मत्ती 17:1-9
प्रभु ! यहाँ होना हमारे लिए कितना अच्छा हैं !
प्रिय भाइयों और बहनों
आज माता कलीसिया बड़े हर्ष और उल्लास के साथ प्रभु के रूपांतरण का पर्व मना रही हैं। हम सब ने अपने जीवन में कुछ जगहों पर ईश्वर का अनुभव जरूर किया होगा, तब हम कहते हैं, कि इस जगह में रहना कितना अच्छा लगता है। इसी प्रकार की बात को आज के सुसमाचार में जिक्र किया गया है जब प्रभु येसु अपने शिष्यों को ऊंचे पहाड़ पर एकांत में ले जाते हैं। पेत्रुस, याकूब और उसके भाई योहन के सामने प्रभु येसु का रूपांतरण हो जाता है। शिष्यों को मूसा और एलियस येसु के साथ बातचीत करते दिखाई देते हैं। तब पेत्रुस ने ईसा से कहा, “प्रभु! यहाँ होना हमारे लिए कितना अच्छा हैं”! यह उनके जीवन का एक सर्वश्रेष्ठ अनुभव था। उसे वे संजोये रखना चाह्ते थे, क्योंकि पेत्रुस और अन्य दो शिष्यों ने येसु की महिमा देखी थी। उन्होंने येसु में ईश्वर की उपस्थिति का इस प्रकार अनुभव किया, जैसे उन्होंने पहले कभी अनुभव नहीं किया था। यह कहा जा सकता है, कि यह येसु की अनुपम महिमा का स्वर्गिक अनुभव था। और उन्हें स्वर्ग का जो स्वाद मिला उसे वे खोना नहीं चाहते थे।
यदि हम पुराने विधान में भी देखेंगे, तो याकूब अपनी यात्रा के दौरान स्वप्न में ईश्वर की उपस्थिति का अनुभव करते हैं, जब वह उस सपने से बाहर आता है, तो वह कहता हैं “यह स्थान कितना श्रद्धाजनक है! यह तो ईश्वर का निवास है, यह स्वर्ग का द्वार है”! ( उत्पत्ति 28 : 17)
ऐसा ही कुछ अनुभव उन तीन शिष्यों को होता है। वे उसी अनुभव में हमेशा रहना चाहते थे। इसलिए संत पेत्रुस प्रभु येसु से कहते हैं, “प्रभु ! यहां होना हमारे लिए कितना अच्छा है, आप चाहें तो मैं यहाँ तीन तंबू खडा कर दूंगा”। यहाँ यह स्पष्ट हैं, कि शिष्य वहाँ से जाना नही चाहते हैं, क्योंकि वे उस ताबोर पर्वत पर बहुत ही स्वर्गीय आनंद और ईश्वरीय उपस्थिति महसूस कर रहे थे। इसलिए शिष्य पर्वत से नीचे जाना नहीं चाहते थे, पर्वत से नीचे जाना मतलब – साधारण लोगों के दैनिक जीवन से जुडे रहना, उनके लिए यह उचित था, कि वे प्रभु के इस अनुभव में बने रहने के साथ-साथ दुनिया से भी जुडे रहे, ना कि ईश्वरीय उपस्थिति को देखकर वे वहीं तंबू बनाकर बस जायें। प्रभु येसु वहाँ उन्हें कोई प्रतिक्रिया नहीं देते हैं और प्रभु येसु उन्हें पहाड से नीचे लेकर आते हैं। इसके बाद प्रभु येसु शिष्यों को अपने दु:ख भोग एवं मरण के बारे में बताते हैं। प्रभु येसु यह नहीं चाहते थे, कि वे सब उस ईश्वरीय अनुभव में खोए रहें, बल्कि वे उस अनुभव के साथ जीवन में आने वाले हर दु:ख-भोग एवं मरण को भी स्वीकार करते हुए जीवन बिताएं,आज हमें प्रभु येसु यही बताना चाहते हैं, कि प्रतिदिन के जीवन में आने वाले क्रूस से दूर ना भागें, बल्कि अपने क्रूस को ढोते हुए आगे बढते जाएं। क्रूस का अर्थ है प्रतिदिन के जीवन में आने वाले दु:ख- कष्ट, विपत्तियाँ तथा समस्याएं। जिस प्रकार प्रभु येसु ने बिना कुड्कुडाये आपना क्रूस ढोया, उसी प्रकार हमें भी अपने जीवन में आने वाले क्रूस को बिना कुड्कुडाये ढोना चाहिए। और दूसरी बात यहां पर यह हैं कि अगर हम अपने जीवन में झांक कर देखें, तो हमें पाता चलता है कि हम कभी न कभी अपनी व्यक्तिगत प्रार्थना, मिस्सा बलिदान, आध्यात्मिक साधना और तीर्थ –स्थलों में ईश्वरीय अनुभव को प्राप्त करते हैं। तब हम भी संत पेत्रुस के शब्दों में कहते हैं कि हमारे लिए यहां बस जाना या रह जाना कितना आच्छा होता। यहां यह वाक्य हमारे व्यक्तिगत जीवन को सोचने के लिए प्रेरित करता हैं।
ये सब अनुभव क्षण भर के लिए होते हैं, फिर भी हम उसी अनुभव में पूरा जीवन बिताना चाहते हैं। हमें चाहिए कि पहाड से नीचे आएं। पहाड जो ईश्वर की उपस्थिति को दर्शाता है, और नीचे आना मतलब इस संसार में जीवन जीना। तो हमें चाहिए कि हम ऊंचे पहाड से नीचे उतर कर अपने जीवन की सच्चाई से परिचित हों। हमें ईश्वरीय कृपा को प्राप्त करके उसी में लीन नहीं होना चाहिए, बल्कि ईश्वरीय अनुभव में बने रहकर अपने हर कार्य को पूरा करना चाहिए, और ईश्वरीय अनुभव के साथ इस दुनिया के हर दु:ख-कष्ट को सहते हुए जीवन बिताना चाहिए, ताकि हम भी प्रभु येसु के समान एक दिन ईश्वर की महिमा को प्राप्त कर सकें।