neelkamal

चक्र- अ – सामान्य काल का तीसरा इतवार

इसायाह 9:1-4, 1कुरिन्थियों 1:10-13,17, मत्ती 4:12-23

ब्रदर नीलकमल तिर्की (खंडवा धर्मप्रान्त)


हम लोग भली-भांति परिचित हैं कि जब बच्चे स्कूल जाना शुरू करते हैं, तब उनके पास ना तो अधिक ज्ञान रहता है और ना समझ। उस समय बस खेलने के अलावा वे कुछ नहीं जानते हैं। परंतु जब बच्चे हमेशा गुरु जी की संगति में रह कर ज्ञान अर्जित करते हैं, बडे हर्षोल्लास के साथ ज्ञान प्राप्त करते हैं और अपने आप को सक्षम बनाते हैं। साथ ही साथ बच्चे बहुत अधिक बुद्धिमान हो जाते हैं। जब बच्चे जीवन मे अपने पैरों में खडे हो जाते हैं, तथा सक्षम हो जाते हैं तब उनका जीवन बहुत ही अधिक सुखमय और आनंदमय बन जाता है।

इसी प्रकार की बातें हमें आज के सुसमाचार में देखने को मिलती है। सुसामाचार में प्रथम शिष्यों की बुलाहट के बारे मे जिक्र किया गया है। ईश्वर हमेशा अपने नबियों और संदेशवाहकों को उनकी योग्यता या क्षमता देखकर नहीं बल्कि अपनी योजना के अनुसार बुलाते हैं। येसु आज के सुसमाचार में मछुआरों को बुलाते हैं जिनको पानी और मछली के अलावा ज्यादा बाहरी ज्ञान नहीं था। कलीसिया का इतिहास गवाह है कि इन्हीं कमजोर नबियों और शिष्यों की विनम्रता के कारण कलीसिया को एक मजबूत नीव मिली है। हर एक परिस्थिति में ये लोग निडर और अडिग रहे। जैसे संत पौलुस कहते हैं “जब मैं कमजोर हूँ तब मैं मजबूत हूँ” (2 कुरिन्थियों 12:10)। ईश्वर को आज भी हम जैसे कमजोर लोगों की जरूरत है, कलीसिया में, समाज में और दुनिया में जहाँ पर भ्रष्टाचार है, अनबन है, पाप है, यदि हम इनके कार्यों के लिए तैयार और उपलब्ध हैं तो वह हमें भी मजबूत और निडर बनाएंगे। क्या हम अपना समय ईश्वर को देने के लिए तैयार हैं ?

सुसमाचार के पहले चरण में हम देखते हैं कि योहन गिरफ्तार हो चुका है। येसु अपने मिशन-कार्यों की शुरूआत करते हैं। वे अपने मिशन-कार्यों का आरम्भ इन शब्दों से करते हैं-‘‘पश्चाताप करो। स्वर्ग का राज्य निकट आ गया है।’’

प्रभु येसु ने पेत्रुस और अन्द्रयस से कहा -‘‘मेरे पीछे चले आओ। मैं तुम्हें मनुष्यों के मछुए बनाऊॅंगा।“ वे तुरन्त बिना सोचे उनके पिछे हो लिये। ये चन्द शब्द थे, वे यह नहीं सोचे प्रभु येसु हम सबको कहाँ ले जायेगें या हमारा भविष्य कैसा होगा। आज के समय में कि कुछ युवा-युवतियां पहली बार किसी धर्मसामाज या धर्मप्रान्त में सेवाकार्य के लिए आगे आते हैं, तो वे यह मालूम करना चाहते हैं कि वहाँ कितने स्कूल, कांलेज और अन्य बडी संस्थाएं हैं। ऐसे लोग बस धन-संपत्ति के बारे में ज्यादा प्रश्न करते हैं, लेकिन जिसका सच्चा बुलावा रहता हैं वह इनके बारे में नहीं सोचता है। परन्तु उनका लक्ष्य येसु के बताये हुए मार्ग में चलने का रहता हैं।

कुछ दूर आगे बढ़ने पर येसु ने ज़ेबेदी के पुत्र याकूब और उसके भाई योहन को पाया। येसु ने उन्हे भी बुलाया। वे भी अपनी नाव व पिता को छोड़कर येसु के पीछे हो लिए। उनकी नाव और अपने पिता को छोड़ना बहुत ही बडे त्याग को दर्शाता है। उन्हें हर प्रकार के रिश्तों को तोड़ना व छोड़ना पड़ा। इतना ही नहीं, उन्हें अपना पेशा जिससे उनकी जीविका चलती थी भी छोड़ना पड़ा। उन्हें अपने आप को खाली करना पड़ा ताकि येसु उन्हें भर सके। हमें प्रभु येसु के लिए अपना सब कुछ सर्मपित करना चाहिए। हमारे जीवन में ऐसा कोई बधंन नही होना चाहिए, जो हमें परेशान, चितिंत बना सकता और येसु के प्यार और सगंति में बाधा बनता है।

निर्गमन ग्रन्थ 3 में हम पढ़ते हैं कि मूसा का जीवन बहुत ही साधारण होता हैं लेकिन जब ईश्वर से उस की मुलाकात के बाद ईश्वर मुसा को मिस्र देश भेजते हैं। “फिराउन के पास जाओ और इस्राएलियों को मिश्र देश से बाहर निकाल ले आओ।” उत्पति गंथ 12:1-3 के वचन के अनुसार ईश्वर ने इब्राहीम को बुलाया। अगर ईश्वर की आवाज को इब्राहीम अनसुना कर देता, तो क्या उसे आशिष मिलती? नहीं न। और साऊल जो गुंडा-गर्दी कर के प्रभु के चेलों को सताता था, अगर वह येसु मसीह की बुलाहट को अनसुना करता, तो वह महान प्रचारक संत पौलुस नहीं बनता। मारकुस के सुसामाचार 2:14 मे हम पढ़ते हैं कि चुंगी लेने वाला अल्फाई के पुत्र लेवी को येसु बुलाते हैं। इसी प्रकार बहुत सारे उदाहण हमारे सामने हैं।

हम येसु के शिष्यों को देखते हैं। यह सत्य है कि वे बहुत ही साधारण मछुआरे थे। वे पढ़े-लिखे नहीं थे। उनका जीवन बहुत ही साधारण था। वे मछली फंसाने के अलावा कुछ नहीं जानते थे क्योंकि मछली फसाना उनका पेशा था। कारण येसु ने उन साधारण मछुओं को बुलाया। वे लोग दुनिया की नजरिया में कुछ भी नहीं थे ,बल्कि येसु के मिशन कार्यों ने उनको कुछ खास बनाया, जिससे येसु के नजरों में वे हीरो बन गये।

एक सवाल उठता है क्या उनमें कमजोरियां नहीं थीं? मानव स्वभाव होने के नाते उनमें कमजोरियाँ थीं लेकिन जब कोई ईश्वर के बुलावे को स्वीकार कर उसके अनुसार कार्य करते हैं, तब मनुष्य की कमजोरियां भी ताकत बनकर उभर आती है, हमारे आगुण सद्गुण में बदल जाते हैं। ईश्वर सबको सुसमाचार प्रचार के लिए नहीं बुलाते हैं। हर मनुष्य की अलग-अलग बुलाहट हो सकती है और प्रत्येक मनुष्य का कर्तव्य है, कि वह अपनी बुलाहट को पहचाने और उसके अनुसार कार्य करे। तो वह सामर्थ्यवान बन जाता है। क्या मैं अपनी बुलाहट पर ईमानदार हूँ या नहीं ?

तो आईए, ईश्वर से प्रार्थना करें कि हम ईश्वर की बुलाहट को पहचान सकें और उसके अनुसार कार्य कर सकें।