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चक्र- स – सामान्य काल का तेईसवाँ रविवार

प्रज्ञा ग्रंथ 9:13-18ब; फिलमोन 9-10, 12-17; लूकस 14: 25-33

- ब्रदर अजित ए. (भोपाल महाधर्मप्रान्त)


आज के पाठों में हमें शिष्यत्व के बारे में बताया गया है। डीट्रिश बोनहॉफर द्वारा लिखित “द कॉस्ट ऑफ डिसाईपिलशिप” नामक एक पुस्तक है जिसमें वे सुंदर रूप से बताते हैं कि जब प्रभु येसु एक व्यक्ति को बुलाते हैं तो वे कहते हैं कि आओ और मरो। इसका सीधा सा मतलब यह है कि जब कोई येसु का अनुसरण करना चाहता है तो उसे अपने पुराने स्वाभाव को त्यागना और येसु ख्रीस्त में एक नया जीवन धारण करना होगा। इसके महत्व को आज के सुसमाचार में येसु हमें बताते हैं कि तुम अपना सब कुछ त्यागे बिना मेरे शिष्य नहीं बन सकते हो (लुकस 14:33)।

इस विषय पर मनन चिंतन करते समय छः प्रमुख बातें हमारे सामने आती हैं। सबसे पहली बात यह है कि हमें येसु को अपने जीवन में प्रथम स्थान देना चाहिए। शिष्य होने के नाते हमें अपना पहला स्थान येसु मसीह को देना और सबसे ज्यादा प्यार उन्हीं से करना चाहिए। इसलिए वे कहते हैं, “यदि कोई मेरे पास आता है और अपने माता-पिता, पत्नी, संतान, भाई-बहनों और यहाँ तक कि अपने जीवन से बैर नहीं करता तो वह मेरा शिष्य नहीं हो सकता। (लूकस 14:26)। इसी को संत मत्ती के सुसमाचार 10:37 में स्पष्ट करते हुए प्रभु कहते हैं कि जो अपने पिता या माता को मुझ से अधिक प्यार करता है वह मेरे योग्य नहीं हैं।

एक उत्तम शिष्य की दूसरी महत्वपूर्ण विशेषता यह है कि वह अपनी दैनिक पीड़ाओं, कमियों, प्रलोभनों, समस्यों, जरूरतों और दुखों को अपना क्रूस मानकर उन्हें सहर्ष ग्रहण करें। क्योंकि येसु कहते हैं जो अपना क्रुस उठाकर मेरा अनुसरण नहीं करता वह मेरा शिष्य नहीं हो सकता (लूकस 14:27)।

तीसरी महत्वपूर्ण विशेषता यह है कि एक शिष्य होने के नाते वह अपने आपको संपुर्ण समर्पण के लिए तैयार करें। क्योंकि केवल तैयारी के माध्यम से ही वह कई मुसीबतों व बाधाओं के बीच भी येसु का शिष्य होने के लिए, अपने निर्णय में दृढ़ रह सकता है। इसी तैयारी के महत्व को आज के सुसमाचार में येसु दो दृष्टांतों द्वारा हमें समझाते है।

चौथी महत्वपूर्ण बात यह है कि प्रभु येसु के शिष्य से अपेक्षा की जाती है कि वह अपने आप को नम्र बनाएं। जैसे हम संत पौलुस के जीवन में पाते हैं। वह एक अत्याचारी था पर उसने प्रभु के शिष्य बनने के बाद अपने आप को नम्र बना कर येसु के सुसमाचार का प्रचार किया और लोगों की सेवा की। जैसे हम आज के दूसरे पाठ में पाते है, पौलुस नम्र बनकर फिलमोन से उसके दास ओनेसीमुस को क्षमा कर उसे वापस स्वीकार करने के लिए निवेदन करता है।

पाँचवी महत्वपूर्ण विशेषता यह है कि कोई भी किसी मजबूरी के कारण नहीं बल्कि अपनी मर्जी से प्रभु के शिष्य बनने का निर्णय ले। क्योंकि आज के दूसरे पाठ में हमें बताया गया है कि भलाई मजबूरी से नहीं बल्कि अपनी स्वेच्छा से होनी चाहिए। (फिलेमोन14)

प्रिय विश्वासियों आज कल कि दुनिया में अपने ज्ञान और आत्मा को हमें प्रदान करने वाले ईश्वर के उपहार को भूलकर हम जो कुछ हासिल करते हैं, उन सब का श्रेय हम स्वयं लेना चाहते हैं। लेकिन जब तक हमें ऊपर से बुद्धि और पवित्र आत्मा ना दी जाए तब तक हम कुछ भी नहीं हैं। इसी को हम आज के पहले पाठ, प्रज्ञा ग्रंथ में पाते हैं, “यदि प्रभु ने प्रज्ञा का वरदान नहीं दिया होता और अपने पवित्र आत्मा को नहीं भेजा होता तो उनकी इच्छा को कौन जान पाता?” (प्रज्ञा ग्रंथ 9:17)

इसलिए छठवीं और अंतिम महत्वपूर्ण बात आज के पहले पाठ में मिलती है कि हर एक शिष्य को प्रज्ञा और आत्मा का अभिषेक के लिए निरंतर प्रार्थना करते रहना चाहिए ताकि वह ईश्वर की इच्छा को जान पाये और एक वफादार शिष्य बन सके। तो आइए हम एक अच्छा शिष्य बनने के लिए अपने जीवन में येसु को प्रथम स्थान दें, अपना क्रूस उठाकर उनके पीछे हो ले, अपने आप को पूर्ण रूप से तैयार करें, नम्र बने, स्वेच्छा से येसु के शिष्य बनने के लिए सामने आए और निरंतर पवित्र आत्मा और प्रज्ञा के लिए प्रार्थना करते रहें।