प्रेरित चरित 12: 1-11; 2 तिमथी 4: 6-8, 17; मती 16: 13-19
आज माता कलीसिया संत पेत्रुस और पौलुस का त्योहार मना रही है, जो कलीसिया के दो प्रमुख स्तंभ माने जाते हैं। वे कलीसिया की आधारशीला है, क्योंकि येसु ख्रीस्त ने अपनी कलीसिया का निर्माण प्रेरितों की नींव पर किया है। इसलिए जब हम इन प्रेरितों का त्योहार मनाते हैं, तब माता कलीसिया के जन्म और विकास का स्मरण करते हैं। संत पेत्रुस एंव पौलुस दोनों अपने जीवन के अंतिम क्षण तक सुसमाचार का प्रचार करते रहे। संत पेत्रुस क्रूस पर चढ़ाए गये और संत पौलुस का सिर विच्छेदन किया गया। दोनों अलग-अलग दिन मारे गए थे, तथापि माता कलीसिया इनका सम्मान प्रारंभ से ही एक साथ करती आयी है।
संत पेत्रुस यहूदियों के बीच और संत पौलुस गैर-यहूदियों में सुसमाचार का प्रचार करते थे। दोनों में कई प्रकार की भिन्नताएं होने पर भी एक बात में समानता थी; और वह है येसु से उनका गहरा प्रेम, जो उन्हें येसु द्वारा सौंपे गये कार्य को जारी रखने के लिए प्रेरित व स हायता करता रहा।
सुसमाचार से हम जानते हैं कि पेत्रुस के दिल में येसु के लिए असीम प्रेम था। येसु के प्रति अपनी घनिश्ठता और स्वामी-भक्ति को उन्होंने खुलमखुला स्वीकार किया और इस कारण से उनसे दूर रहना नहीं चाहते थे। इसी वजह से वे यह स्वीकार नहीं कर सके कि येसु को क्रूस पर दुख भोगना पड़ेगा। जब शत्रुओं ने प्रभु को गिरफ्तार किया तब पेत्रुस ने आवेश में आकर अपने प्रभु की रक्षा के लिए मलकुस का दाहिना कान काट डाला था। प्रभु के प्रति उनका प्रेम इतना तीव्र था कि वे अकेले, कई शत्रुओं से लड़ने के लिए तैयार हो गये।
येसु की गिरफ्तारी के बाद संत पेत्रुस ने तीन बार उन्हें अस्वीकार किया। लेकिन अपनी गलती का एहसास होते ही उन्होंने पश्चाताप किया और दुख के आधिक्य से वे आंसू बहाते रहे, पश्चाताप की आग में जलते रहे। अगर वे येसु को त्याग देना चाहते तो वहाँ से भाग सकते थे। लेकिन हम देखते हैं कि वे महापुरोहित के महल के चारो तरफ घूमते रहते हैं, यह जानने के लिए की अपने प्रिय स्वामी पर क्या बीत रहा है।
संत पेत्रुस को येसु में पूर्ण विश्वास था। जैसे ही येसु ने बुलाया, तुरंत उन्होंने अपनी नाव और जो कुछ अपने पास था, वह सब कुछ छोड़कर येसु का आनुगमन किया। योहन 6:68 में वे कहते हैं, ‘‘प्रभु हम किसके पास जाएँ, आपके ही शब्दों में अनंत जीवन का संदेश है।’’
जिस क्षण उनकी मुलाकत प्रभु येसु से हुई, उस क्षण से वे उनके शिष्य बन गये और प्रभु में पूर्ण भरोसा रखने लगे। उन्होंने बार-बार येसु में अपने विश्वास की घोषणा की। कई बार उनके विश्वास की परीक्षा हुई तो कभी-कभी इन परीक्षाओं में वे असफल भी हुए। किंतु अपनी कमी का ज्ञान होते ही, वे पश्चाताप की आग में जलकर शुद्ध होकर प्रभु के, पहले से अधिक निकट पहुँच जाते हैं। प्रभु के पुनरूत्थान पर जब इन्हें पूर्ण विश्वास हो गया, तब से प्रभु के लिए कुछ भी करने को, यहाँ तक कि मरने को भी तैयार हो गए। संत पेत्रुस के समान हमें अपने ईश प्रेम और मानव का ज्ञान ही नहीं, बल्कि अपनी बलहीनताएँ एवं स्वार्थ का भी ज्ञान होता है। वे आशा का प्रतिरूप है जो हमें बताते हैं कि चाहे हम गरीब और सामान्य ख्रीस्तीय ही क्यों न हो, तो भी ख्रीस्त के शिष्य बनकर हम पूर्ण जीवन प्राप्त कर सकते हैं।